मृत्युभोज का मुद्दा पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर छाया हुआ है।
फेसबुक और वॉट्सएप पर लम्बी बहस चल रही है। सबके अपने-अपने तर्क हैं। कई विद्वानों का मानना है कि यह एक सामाजिक बुराई है। इसे बंद किया जाना चाहिए। हालातों पर नजर डालें तो आज वाकई में यह बड़ी बुराई बन चुका है। अपनों को खोने का दु:ख और ऊपर से तेहरवीं का भारी भरकम खर्च..?
इस कुरीति के कारण कई दुखी परिवार कर्ज के बोझ में तक दब जाते हैं, जो सभी के मन को द्रवित करता है। लेकिन जो हो रहा है इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। आप चौंक जाएंगे और यह मानने पर बाध्य होंगे कि यह व्यवस्था सही थी। वक्त के साथ इसमें जो विकृतियां आई हैं, बस इन्हें दूर करके इसे मूल स्वरूप में पुन: स्थापित किया जा सकता है।
पुरानी परम्परा के अनुसार
पुरानी परम्परा के अनुसार मृतक के घर पर आज भी लोग कपड़े आदि लेकर जातेे हैं।
इसका दायरा पहले और भी व्यापक था। परिचित व रिश्तेदार क्षमतानुसार अपने घरों से अनाज, राशन, फल, सब्जियां, दूध, दही मिष्ठान्न आदि लेकर मृतक के घर पहुंचते थे। लोगों द्वारा लाई गई तरह-तरह खाद्य सामग्री ही बनाकर लोगों को खिलाई जाती थी। वे अपने हाथों से बनाकर भोजन ग्रहण करते थे। अब तो खास रिश्तेदार भी मात्र वस्त्र आदि लेकर मृतक के घर पहुंचते हैं। बाकी लोग सद्भावना लिए केवल खाली हाथ ही पहुंच जाते हैं।
इसके चलते मृतक के परिजन पर इतना बोझ डाल दिया जाता है कि उसी सारी उम्र खर्चा नहीं उतर पाता है।
जरूरतमंदों को कुछ दे नहीं सकते हो तो मेहरबानी करके उनके पास जो है उसे झपटने की भी कोशिश ना करो।
सोच बदलो समाज बदलेगा, समाज बदलेगा तो पुरा भारत वर्ष बदलेगा।
फेसबुक और वॉट्सएप पर लम्बी बहस चल रही है। सबके अपने-अपने तर्क हैं। कई विद्वानों का मानना है कि यह एक सामाजिक बुराई है। इसे बंद किया जाना चाहिए। हालातों पर नजर डालें तो आज वाकई में यह बड़ी बुराई बन चुका है। अपनों को खोने का दु:ख और ऊपर से तेहरवीं का भारी भरकम खर्च..?
इस कुरीति के कारण कई दुखी परिवार कर्ज के बोझ में तक दब जाते हैं, जो सभी के मन को द्रवित करता है। लेकिन जो हो रहा है इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। आप चौंक जाएंगे और यह मानने पर बाध्य होंगे कि यह व्यवस्था सही थी। वक्त के साथ इसमें जो विकृतियां आई हैं, बस इन्हें दूर करके इसे मूल स्वरूप में पुन: स्थापित किया जा सकता है।
पुरानी परम्परा के अनुसार
पुरानी परम्परा के अनुसार मृतक के घर पर आज भी लोग कपड़े आदि लेकर जातेे हैं।
इसका दायरा पहले और भी व्यापक था। परिचित व रिश्तेदार क्षमतानुसार अपने घरों से अनाज, राशन, फल, सब्जियां, दूध, दही मिष्ठान्न आदि लेकर मृतक के घर पहुंचते थे। लोगों द्वारा लाई गई तरह-तरह खाद्य सामग्री ही बनाकर लोगों को खिलाई जाती थी। वे अपने हाथों से बनाकर भोजन ग्रहण करते थे। अब तो खास रिश्तेदार भी मात्र वस्त्र आदि लेकर मृतक के घर पहुंचते हैं। बाकी लोग सद्भावना लिए केवल खाली हाथ ही पहुंच जाते हैं।
इसके चलते मृतक के परिजन पर इतना बोझ डाल दिया जाता है कि उसी सारी उम्र खर्चा नहीं उतर पाता है।
जरूरतमंदों को कुछ दे नहीं सकते हो तो मेहरबानी करके उनके पास जो है उसे झपटने की भी कोशिश ना करो।
सोच बदलो समाज बदलेगा, समाज बदलेगा तो पुरा भारत वर्ष बदलेगा।
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